राजग में वापसी का दूसरा वर्षगांठ: क्या हैं नीतीश कुमार की मजबूरियां!

नीतीश कुमार, फाइल फोटो
–-सुरूर अहमद
पटना 28 जुलाई । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने प्रमोशन के लिए दो मुख्य रणनीतियां अपनाते रहें हैं: पहला बड़े पैमाने पर वर्षगांठ मनाना और दूसरा हाई-प्रोफाइल राजनीतिक यात्रायें करना। हर साल 24 नवंबर को- जिस दिन वह 2005 में सत्ता में आए थे- अपनी सरकार की उपलब्धियां बताने के लिए मीडिया के समक्ष अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड जारी करते रहे। इस अवसर पर पार्टियां होतीं , लाखों रुपए के विज्ञापन अखबारों में छपवाए जाते।
जैसे के यह सब काफी नही था, उन्होंने 22 मार्च को बिहार दिवस मनाने का विचार ढूंढ निकाला । फिर 2012 में बिहार का जन्म शताब्दी समारोह खूब धूमधाम के साथ मनाया गया। हालांकि इसके पीछे का औचित्य ब्रांड बिहार बनाना बताया गया जो कुछ हद तक सही भी है, लेकिन इस तरह की कवायद से नीतीश की छवि को ग्रैंड रूप देने में मदद मिली।
परन्तु यह 2014 से पहले के अच्छे दिन थे। नीतीश ने अब ग्रैंड शो आयोजित करने का लगन खो दिया है। उम्मीद के अनुरूप ही इस साल 27 जुलाई ( दो साल पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में इसी दिन उनकी वापसी हुई थी) का दिन फीका ही रहा। खास बात यह है कि जिस डबल-इंजन सरकार (केंद्र और राज्य दोनों में एनडीए सत्ता में है) की अहमियत पर वो हमेशा ज़ोर देते रहे उसने उनके लिए सफलता का दावा करने का कोई अवसर नही दिया।
बल्कि पहले के वर्षों की तुलना में नीतीश सरकार के पास उपलब्धियों के नाम पर बहुत कम बचा है। ऐसा प्रतीत होता है के उनके हाथ अदृश्य रस्सी से बंधे हैं। एक्यूट एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (AES) और गर्मी की लहर के कारण सैकड़ों लोगों, प्रमुख रूप से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने सरकार की विफलता को पूरी तरह से उजागर किया है।
नीतीश कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार और विकास सुनिश्चित करने के वायदे के साथ सत्ता में आए थे। निश्चित तौर पर 2005 में बिहार की सत्ता में आई उनकी पहली सरकार ने कुछ बदलाव लाया। चूंकि लालू-राबड़ी के 15 साल का शासनकाल ज़्यादातर गलत कारणों से खबरों में रहा था ऐसे में नयी सरकार के द्वारा कानून और व्यवस्था में छोटे मोटे सुधार और विकास के लिए उनके द्वारा उठाये गए कुछ कदमों को भी बड़ी उपलब्धि माना गया।
सौभाग्य से नीतीश सरकार का आगमन ऐसे समय मे हुआ था जब केंद्र की पहली यूपीए सरकार पूरे देश में कई महत्वपूर्ण योजनाओं को लागू कर रही थी। पूर्व-पश्चिम कॉरिडोर (East-West Corridor), स्वर्णिम चतुर्भुज (Golden Quadrilateral) , प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राजीव गांधी ग्रामीण विद्धुतीकरण जैसी केंद्रीय योजनाएँ के साथ साथ मनरेगा (MGNREGA) राज्य में नौकरियों के बड़े अवसर लेकर आया। उस दौर में रेलवे ने भी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया।
2005 से पहले बिहार एक संसाधन-संपन्न राज्य नहीं था इसलिए केंद्र सरकार के पिछड़ा क्षेत्र अनुदान का लाभार्थी था। मनमोहन सिंह के अधीन तत्कालीन केंद्र सरकार बिहार को मदद देने के लिए पर्याप्त उदार थी। इन सब ने मिलकर राज्य के विकास दर को बढ़ावा देने में मदद की जो जल्द ही 11 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर गया। । इसमें शक नहीं कि नीतीश सरकार ने पहले के वर्षों में कुछ अच्छी पहल की।
लंबे अंतराल के बाद सरकार बदलने से अक्सर नई संभावनाएं पैदा होती हैं और सरकारी तंत्र में नयी ऊर्जा का संचार होता है। ऐसे सकारात्मक संकेत बिहार में भी दिखाई दीये। लेकिन जल्द ही हालात बिगड़ने लगे क्योंकि नीतीश राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी हो गए।
केंद्र द्वारा संचालित स्कीमों विशेषकर स्वास्थ्य, शिक्षा और पंचायती राज संस्थाओं में हजारों करोड़ रुपये आने के फलस्वरूप भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होने लगी। चर्चित यूटेरस स्कैम में सैकड़ों करोड़ के गबन और स्कूलों में दोहरे नामांकन जैसे भ्रष्टाचार के मामले नीतीश सरकार के शुरुआती दिनों में सामने आए।
चूंकि मीडिया नीतीश सरकार का मुख्य लाभार्थी था, इसलिए मुख्यमंत्री पत्रकारों के प्रिय बने रहे। अनियमितताओं को उजागर करने के बजाय मीडियाकर्मी नीतीश को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री पुरस्कार से सम्मानित करने में व्यस्त थे। इससे बिहार में 2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनाव में राजग की जीत में मदद मिली।
मीडिया के साथ नीतीश के नज़रे खास का यह सिलसिला 16 जून 2013 को बीजेपी से नाता तोड़ने और उनकी पार्टी के सभी 11 मंत्रियों को बर्खास्त कर देने के पहले तक चलता रहा। उसके बाद मीडिया ने कुछ हद तक भ्रष्टाचार को उजागर करना शुरू किया।
इसी बीच भाजपा ने 2013 में नीतीश पर आरोप लगाया कि वह मीडिया का दुरुपयोग कर रहे हैं और ज्यादातर उपलब्धियां जिनका वह श्रेय ले रहे हैं वास्तव में उनके अपने नहीं हैं। इसके कुछ महीने बाद ही एक के बाद एक टॉपर्स स्कैम, एसएससी स्कैम, सृजन स्कैम, शेल्टर होम स्कैम आदि की परतें खुलने लगीं। लेकिन इनमें से अधिकांश घोटालों के तार नीतीश शासन के शुरुआती वर्षों से जुड़े हैं।
अपने पहले कार्यकाल में नीतीश ने कॉमन स्कूल सिस्टम के लिए पूर्व राजनयिक मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। उन्होंने ऑपरेशन बर्गा की तरह का भूमि सुधार लागू करने के लिए बन्दोपाधाये आयोग की स्थापना की। यह शेयरक्रॉपर को सशक्त बनाने के लिए किया गया था। चूंकि इस का लाभ ज़्यादातर निचली जातियों को होता, भूमिधारी उच्च जातियां जो सरकार की रीढ़ रहें हैं, ने इस कदम का कड़ा विरोध किया। इस तरह नितीश इन दोनों प्रयासों में असफल रहे।
नीतीश की वास्तविक सफलता सोशल इंजीनियरिंग के मोर्चे पर मिली। उन्होंने शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण को 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया। इसके अलावा, अति पिछड़ी जातियों के लिए 20 प्रतिशत कोटा तय किया गया था। यह एक तरह से यादवों की सत्ता की पकड़ को खत्म करने के लिए किया गया था। इसके अलावा महादलित आयोग की स्थापना की गई ताकि अनुसूचित जातियों में निचली पायदान पर पायी जाने वाली कम्युनिटी का उत्थान हो सके।
2014 के बाद से नीतीश को अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना मुश्किल लगने लगा है। नरेंद्र मोदी के आगमन ने उन्हें कई तरह से सीमित कर दिया। उन्हें आभास होने लगा कि वो अब केंद्र प्रायोजित योजनाओं जैसे स्वच्छ भारत, उज्ज्वला योजनाओं, या ग्रामीण विद्धुतीकरण कार्यक्रमों की सफलता का श्रेय नहीं ले सकते । हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान, भाजपा नेताओं खासकर प्रधान मंत्री ने इन योजनाओं के लिए पूरा श्रेय लिया।
हालांकि मुख्यमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान बड़े पैमाने पर अभियान चलाया, लेकिन उनके पास अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश करने के लिए कुछ खास नहीं था। इन सब कारणों से नीतीश कुमार का भाजपा के साथ वापसी का दूसरा वर्षगाँठ भव्य आयोजनों से खाली रहा।
(सुरूर अहमद अंग्रेजी के वरिष्ट पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया और एशियन ऐज से सम्बंध रहा है। द टेलीग्राफ, DNA, वायर और नेशनल हेराल्ड में स्तंभ (Column) लिखते हैं । फ़िलहाल सोशल इनिशिएटिव के तहत पटना में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने वाली संस्था ‘CURRENT’ से जुड़े हैं।)
डिस्क्लेमर: इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं इससे जन ओपिनियन की सहमति ज़रूरी नहीं है ।