हम मेहनतकश, जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे!

दुनिया की तमाम रंगीनियों से लेकर धरती को स्वर्णगर्भा बनाने तक की हर संघर्षयात्रा इन धरतीपुत्रों के खून पसीने के बिना मुकम्मल नहीं होती। फोटो courtesy : Firos nv/Unsplash
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे। यां पर्वत पर्वत हीरे हैं ,यां सागर सागर मोती हैं, ये सारा माल हमारा है,हम सारा खज़ाना मांगेंगे—–फैज़ अहमद फैज़
--मो.दानिश
जन ओपिनियन नई दिल्ली 1 मई । मजदूरों के हक-हुकूक और उनकी बेहतरी की जब भी बात की जाती है तो फ़ैज़ की यह नज़्म मजदूर अधिकारों के मैनिफेस्टो की तरह याद की जाती है। इस नज्म में मेहनतकश अवाम के उस ख्वाब को बुलंद आवाज दी गयी है जिसे पाने का सपना सदियों से एक फैंटेसी की तरह उन्हें आशान्वित करता रहा है लेकिन हक़ीक़त का बयान इसके ठीक उलट है।
फ़ैज़ जैसे इंकलाबी शायर का यह तसव्वुर यकीनन इंसानी बराबरी की मजबूत बुनियाद के लिए निहायत जरूरी है। दुनिया की तमाम रंगीनियों से लेकर धरती को स्वर्णगर्भा बनाने तक की हर संघर्षयात्रा इन धरतीपुत्रों के खून पसीने के बिना मुकम्मल नहीं होती।तरक्की की चौहद्दी को आप अपने ग्लोब के जिस हिस्से में भी देखते हैं न, वो सब इन्हीं श्रमशील योद्धाओं की अकथ कहानियां हैं।
हां यह अलग बात है कि इन तमाम ऐशो-आराम की बनावटों में उनका हिस्सा नींव की उन ईंटों की तरह अनदेखा या दबा रह जाता है जो बिल्कुल खामोशी से अपनी जिम्मेदारी को निबाहते हैं।जो अपने हसीन ख्वाबों को पाने की हसरत लिए अरब के रेगिस्तानों से लेकर,यूरोप की सर्दिली हवाओं और अफ्रीका के बीहड़ों तक में पूरी तन्मयता से हाड़ तोड़ मेहनत करते मिल जाते हैं ।
दुर्भाग्य यह कि उनकी इस मेहनत और उनकी जीवटता को महज कुछ सैकड़े या हजार रियाल,डॉलर ,पौंड या यूरो में तौलकर दुनिया के बाजारों में उनकी बोलियाँ लगा दी जाती हैं और फिर कोई उनकी जिंदगी के उन बन्द दरवाजों में झांकने की जरूरत भी नहीं समझता जिसके भीतर दरबेनुमे कोठरियों में आदमी जानवरों की तरह ठूंसा जाता है ,जिसमें आदमी को सिर्फ अपना पैर पसारने भर की जगह ही बमुश्किल मिल पाती है।
जिनके लिए पेट भरने की न्यूनतम जरूरतों के अलावा हर चीज ऐशो-आराम में गिनी जाती हो,जिनकी सारी जिंदगी का सरमाया परिवार को बचा लेने ,जिला लेने की जद्दोजहद से ज्यादा कुछ नहीं हो उनके बारे में दुनिया के सरमायेदारों को जानने की जरूरत भी क्या है।जब सारा मामला मुनाफाखोरी का है तो फिर इस तरह के नुकसान वाली बातों में हमारे धन्नासेठ अपना वक़्त क्यों जाया करे।
तो फिर #1मई की जरूरत क्या है? जरूरत है ,कुछ रस्म अदायगियाँ भी तो जरूरी हैं ,कुछ गीत और नारों को नई तर्ज़ों, नई बुलंदियों के साथ दुहराना भी तो जरूरी है तभी तो ट्रेड यूनियनों के नेता नेता की तरह बने रहेंगे,सदस्यता रसीदों के चंदे बढ़ते रहेंगे,सरकारों और प्रबंधनों से अंदरखाने मेलजोल बढ़ते रहेंगे।आज पूरे देश में और कमोबेश दुनिया में भी मजदूर आंदोलन न के बराबर हैं और इसकी सीधी वजह है पूंजीवादी नीतियों के आगे श्रम संगठनों का बौनापन और उनकी बेईमानी।
कभी 8 घण्टे काम के अधिकार के लिए इतने बड़े आंदोलन का जन्म हुआ कि पूरी दुनिया में इसका असर हुआ और आज श्रम कानूनों में कई तरह की मनमानी छूट सरकारें दे रही हैं तब भी कोई व्यापक मजदूर हित की बात नहीं होती।
WTO जैसे पश्चिमपरस्त मुनाफाखोर संस्थाओं के हितों की रक्षा के नाम पर, ease of doing business के नाम पर लगातार श्रमिक हितों की उपेक्षा जारी है लेकिन उनके प्रतिरोध में उठनेवाली आवाजें या तो मद्धिम हैं या खामोश।उनकी सशक्त उपस्थिति कहीं-कहीं ही मिलती है।आज कोरोना के कारण लॉकडाउन में जब सब कल कारखाने ठप हैं ,मजदूरों की रोजी रोटी का लगभग हर आसरा बन्द है ऐसे में उनकी तकलीफों को ‘त्रासदी’ से कम कुछ भी कहना बेईमानी होगी।
फिर भी हुजूर आज 1 मई है तो मुबारकबाद तो दे ही देता हूँ ।ये मुबारकबाद उनको नहीं है जो फ़ैज़ या किसी और इंकलाबी शायर की नज़्मों, गीतों ,कविताओं,नारों को हथियार बनाकर दर्जनों संगठनों के मठाधीश बन बैठे हैं बल्कि ये मुबारकबाद उन तमाम मेहनतकशों, श्रम साधकों को है जिनकी मेहनत और कुर्बानियों के बिना दुनिया की शाहराहों से लेकर शहरों तक की हरेक इबारत अधूरी ही रहती। मजदूर दिवस जिंदाबाद!!!